Sunday, January 15, 2012

फिर एक दिन...

इस शहर ने जो दिए,
हर दिन नए;
वो नकाब, वो लिबास
यहीं छोड़ के -- घर लौटेगा तू |
अन्जान राहों पे चलता,
थका - हारा - परेशान;
नकाबों - लिबासों
में उलझा हुआ नादान |

खुदको खुदी से ढूँढने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |

घंटो - घंटो महफ़िलें सजती थीं;
कूचों में - गलियों में - नुक्कड़ में |
खूब ठिठोली मचती थी;
यारों में - लड़कपन में - हुल्लड़ में |
अब रुकी - फंसी - हंसी में
फंसा हुआ नादान |

उन्ही कमीने दोस्तों पे जान छिड़कने;
फिर एक दिन -- घर लौटेगा तू |